बिहार के प्रसून ने धर्मशाला में 200 से अधिक विद्यार्थियों को मिथिला पेंटिंग के बारे में किया प्रशिक्षित 

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आवाज़ ए हिमाचल 

ब्यूरो, धर्मशाला। राज्य पुरस्कार प्राप्त कलाकार बिहार के गांब रांटी तहसील राजनगर जिला मधुबन निवासी प्रसून कुमार ने धर्मशाला में विरासत मेले के दौरान लगभग 200 से अधिक कांगड़ा के सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों को मिथिला पेंटिंग के बारे में प्रशिक्षित किया। इस दौरान उन्होंने मधुबनी मिथिला पेंटिंग की महत्वता के बारे में बताते हुए उन्हें प्रैक्टिकल टिप्स भी बताएं। प्रसून का जन्म 5 सितंबर 1976 को गांब रांटी में जन्म हुआ था। प्रसून को शुरू से हो पेंटिंग की बड़ी रूचि थी यही बजह रही कि बेहतरीन प्रदर्शन के लिए उन्हें 25 स्टेट अवार्ड से नवाजा गया हैं। इनका अपना मिथिला पेंटिंग बाई प्रसून कुमार यूट्यूब चैनल भी है जिसमें अपनी कला के बारे में लगभग कई वीडियो भी अपलोड की गई हैं।

बता दें कि भारतीय संस्कृति की पहचान कला और संगीत से है। जिस प्रकार बिना संगीत और बिना कला के भारतीय संस्कृति अधूरी मानी जाती रही है, उसी प्रकार चित्र कला के क्षेत्र में बिना मधुबनी चित्रकला के आज के समय में चित्रकला की पहचान अधूरी है। मधुबनी चित्रकला या मिथिला पेंटिंग बिहार तथा नेपाल की प्रसिद्ध चित्रकला तथा पहचान है।

उन्होंने बताया कि मधुबनी पेंटिंग या मिथिला पेंटिंग को मिथिला की कला कहा जाता है। इसकी विशेषता है- चटकीले और विषम रंगों से बनाए गए चित्र। इस पेंटिंग में ना शेडिंग की जाती है, न ही इस पेंटिंग में कोई भी जगह खाली छोड़ी जाती है। खाली स्थानों को भरने के लिए फूल, पत्तियां, पेड़, सूरज, चंद्रमा आदि बनाए जाते हैं।

रंग बनाने का अनोखा विकल्प

इस पेंटिंग को बनाने के लिए जो रंग प्रयोग में लाए जाते हैं, उन्हें बनाने के लिए प्राकृतिक वस्तुओं का ही प्रयोग किया जाता है। जैसे हरा रंग बनाने के लिए वृक्षों की पत्तियों का प्रयोग किया जाता है। सफेद रंग चावल के आटे और दूध को मिलाकर बनाए जाते हैं। काला रंग काजल -गोबर आदि के मिश्रण से बनाया जाता है। पीला रंग हल्दी, पराग और बरगद के फलो आदि से बनाया जाता है। लाल रंग बनाने के लिए लाल फूलों का रस, लाल चंदन की लकड़ी आदि का प्रयोग किया जाता है। परंतु समय में बदलाव के साथ-साथ अब फैब्रिक कलर ने भी इसका स्थान ले लिया है।

आस्था व भक्ति की तरफ खींचती मधुबनी चित्रकला

आमतौर पर मधुबनी पेंटिंग में हिंदू देवी-देवताओं जैसे भगवान श्री कृष्ण ,रामायण के पात्र, शिव-पार्वती के दृश्य, कुलदेवता का चित्र आदि देखने को मिलता है। अतः इन पेंटिंग्स को देखने के बाद ईश्वर के प्रति झुकाव सामान्य सी बात है।

दीवारों से कैनवस तक का सफर

यह कार्य मिट्टी पर किया जाता रहा है, परंतु अब यह कार्य कागज कपड़ा कैनवस आदि में भी किया जाने लगा है। प्राचीन काल में महिलाएं कच्ची मिट्टी की दीवारों पर बनाती थी परंतु जैसे-जैसे इस पेंटिंग की मांग बढ़ती चली गई दीवारों पर इस पेंटिंग को बनाने का प्रचलन तो रहा ही साथ-साथ यह आकृतियां कागज पर भी उकेरी जाने लगी। महिलाओं के साथ-साथ पुरुष भी इस चित्रकला को बखूबी बनाते हैं। आज विश्व भर में इस कला की मांग है।मधुबनी पेंटिंग की बढ़ती मांग मिथिला या मधुबनी क्षेत्र के लिए आमदनी का नया और सफल साधन हो गया है। मधुबनी चित्रकला मिथिला की एक फोक पेंटिंग है। इस शैली के चित्र दो प्रकार के होते हैं- भित्ति चित्र और अरिपन। इस चित्रकला में मिथिलांचल की संस्कृति को दिखाया जाता है। मिथिला की औरतों द्वारा शुरू की गई इस घरेलू चित्रकला को पुरुषों ने भी अपना लिया है।

उन्होंने बताया कि मधुबनी कला बिहार के मधुबनी और मुजफ्फरपुर जिलों में सबसे अधिक प्रचलित है। इस कला में गहरे रंगों का इस्तेमाल किया जाता है और इसमें धातु रंग अधिकतर प्रयुक्त होता है। मधुबनी कला में मुख्य रूप से स्त्रियों द्वारा बनाए जाने वाले चित्र होते हैं जो पौधों, फूलों, पक्षियों, जानवरों और जानवरों के पूजन आदि के विषयों पर बनाए जाते हैं। इसके अलावा मधुबनी कला में लक्ष्मी-गणेश, कृष्ण-राधा, राम-सीता, और शिव-पार्वती जैसे देवताओं के चित्र भी बनाए जाते हैं। कहा जाता है कि मधुबनी पेंटिंग राजा जनक की बेटी सीता के जन्म स्थान मिथिला के प्राचीन शहर में विकसित हुई थी। ऐसा कहा जाता है कि मिथिला पेंटिंग राजा द्वारा अयोध्या के भगवान राम से अपनी बेटी के विवाह के उपलक्ष्य में बनवाई गई थी। इसे कुलीन कला या शुद्ध जातियों की कला के रूप में मान्यता दी गई थी। यह मुख्य रूप से सामाजिक रीति-रिवाजों और प्रथाओं के रूप में घरेलू कला के रूप में फलता-फूलता रहता है। इस कला रूप की बढ़ती मांग के कारण, कलाकार खुद को दीवारों तक सीमित रखना बंद कर, कैनवस, कागज और अन्य वस्तुओं पर पेंटिंग करना शुरू कर दिए। दार्शनिक रूप से, मधुबनी पेंटिंग द्वैतवाद के सिद्धांतों पर आधारित एक जीवित परंपरा है, जहां विपरीत द्वैतवाद में चलते हैं – दिन हो या रात , सूर्य या चंद्रमा, आदि। वे एक समग्र ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो देवताओं, सूर्य और चंद्रमा, वनस्पतियों और जीवों से भरा हुआ है। इसमें बौद्ध धर्म, तांत्रिक प्रतीकों, इस्लामी सूफीवाद और शास्त्रीय हिंदू धर्म के प्रतीक भी शामिल हैं। इस दौरान उन्होंने बताया कि क्रिएटिव स्टूडेंट्स के लिए बेस्ट करियर ऑप्शंस भी है।

मधुबनी कला का निर्माण

मिट्टी और गाय के गोबर की पतली परतों का उपयोग सतह को कोट करने के लिए किया जाता है। यह एक परिरक्षक और एक मजबूत बनाने वाले एजेंट के रूप में कार्य करता है। इसे शुभ और समृद्धि का अग्रदूत माना जाता है। इसके बाद पिसी हुई चावल और उँगलियों, बाँस की टहनियों, सूती चिथड़ों और आजकल कलमों का उपयोग करके पेंट किए गए चित्र हैं। परंपरागत रूप से पेंटिंग में कोई जगह नहीं छोड़ी जाती है। यह फूलों, पक्षियों, जानवरों, टैटू डिजाइन आदि से भरा हुआ होता हैं।

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