शाहपुर में अढ़ाई घड़ी बिना सिर लड़ा था चंबा का राजा 

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रेहलू की खोहली खड्ड किनारे हुआ था अंतिम संस्कार, रानी व चार वांदिया हुई थी सती, आज भी है पंजा निशान

आवाज़ ए हिमाचल

रमेशचन्द्र “मस्ताना”

24 जून। शाहपुर विधानसभा क्षेत्र का नेरटी गांव अपने में चम्बा के राजा राजसिंह ( सन् 1764 से 1794 ) की ऐतिहासिक गाथा को अपने आंचल में समेटे हुए है। चम्बा की रियायत से जुड़ा यह गांव चम्बा के राज परिवारों का आवास भी रहा है। रेहलू के किले के साथ-साथ नेरटी के गढ़ ( कोठियां ) में भी राजाओं का निवास एवं राजकाज का कार्य होता था। राजा राजसिंह का तलवार कौशल जहां इतिहास प्रसिद्ध रहा है, वहां उनकी देवी माता ” घोरका ” के प्रति अपार आस्था भी आध्यात्मिकता की एक मिसाल थी। कांगड़ा – नरेश संसार चन्द इसी देवी की प्रतिमा को और रेहलू तथा नेरटी के हार को अपने अधीन करने की मंशा रखते हुए ही उसने राजा राजसिंह को बन्दी बनाने के लिए अपने सैनिक भेजे थे। इन सैनिकों ने धोखे से गढ़ ( कोठियां ) में राजा राजसिंह पर पूजा में बैठे हुए छद्म युद्ध किया था।

 

आषाढ़ प्रविष्टे सात सन् 1794 में हुए इस छद्म युद्ध में राजा राजसिंह की खोपड़ी का ऊपरी हिस्सा शत्रु सैनिक की तलवार के वार से भले ही उड़ गया पर फिर भी वह अढाई घड़ी तक शरीर के अट्ठारह घावों के बावजूद दुश्मन सैनिकों के साथ अपनी तलवार के बल से मुकाबला करते हुए इसी देहरा नामक स्थान तक पहुंच गए थे। वहां पर किसी के द्वारा यह कहने पर कि देखो, राजा बिना खोपड़ी के लड़ रहा है, ऐसी बात सुनते ही राजा ने अपने सिर पर हाथ रखा तो उसे खून से लथपथ पाया और वहीं एक शिला पर हाथ मारकर मूर्छित होकर शहीद हो गए। उस समय तक राजा राजसिंह के सैनिकों को भी पता चल चुका था इसलिए उनका आभास पाते ही शत्रु सैनिक खोपड़ी के ऊपरी हिस्से को लेकर भाग निकले।

दुश्मन सैनिकों को क्योंकि उन्हें बन्दी बनाकर लाने का ही आदेश था परंतु ऐसा करने पर उन्हें अपनी जान का खतरा साफ दिखाई दे रहा था, इसलिए उन्होंने हड़बड़ाहट में ऐसा किया और भाग निकले। राजा राजसिंह के सैनिकों ने पीछा करके गज्ज खड्ड के उस पार “घाटी” नामक स्थान पर उनका मुकाबला कर खोपड़ी के हिस्से को छुड़ाया। इसके उपरांत राजा राजसिंह का अन्तिम संस्कार रेहलू में खौहली खड्ड के किनारे किया गया था, जिसमें उनकी रानी और चार वांदियां सती हुईं थीं। राजा राजसिंह के खून से लथपथ पंजे का वह निशान आज भी उस शिला पर अंकित है और वही शिला ” स्मृति शिला ” एवं ” राजे का देहरा ” के रूप में पूजनीय है।

राजा राजसिंह के बेटे जीतसिंह ने 1794 से 1796 के मध्य उनकी यादगार में एक शिव मंदिर का निर्माण करवाया और उसी वर्ष से एक मेले के आयोजन की परम्परा भी डाली। तभी से राजा राजसिंह के शहीदी दिवस आषाढ़ प्रविष्टे सात अर्थात 20 अथवा 21 जून को उनकी स्मृति में ” देहरे दा मेला ” आयोजित होता है। यह मेला किसी समय देहरा ( नेरटी ) से लेकर कुठमां ( घाटी ) तक लगता था और कांगड़ा व चम्बा के श्रद्धालु – भनाड़ू देहरा आकर राजा के देहरे व शिवजी के चरणों में शीश नवाते थे। चम्बा के गद्दी लोग इस देहरे को अपनी कुल़ज के रूप में भी मानते व पूजते हैं। भले ही इस मेले का स्वरूप आज सिकुड़ चुका है और यह देहरा से छिटक कर रैत कस्बे में मुख्य सड़क के किनारे पर पहुंच चुका है पर राजा की स्मृति शिला ( देहरा ) तथा शिव मंदिर की जलहरी व शिव लिंग के प्रति लोगों की अपार आस्था है। इस मन्दिर का उत्तरदायित्व एवं पूजा-अर्चना का काम राज परिवार द्वारा ही देहरा में बसाए गए दीक्षित परिवार को सौंपा गया है।

 

कांगड़ा लोक साहित्य परिषद् और इसके संस्थापक निदेशक डॉ. गौतम शर्मा व्यथित जी के प्रयासों के द्वारा जहां मन्दिर परिसर का विकास केन्द्रीय तथा प्रादेशिक सरकार के सहायतानुदान से भी हुआ है, वहां विगत 40 – 45 वर्षों से इस मेले को ” परम्परा – उत्सव ” के रूप में मनाने का प्रयास किया जा रहा है। वर्तमान में देहरा के इस स्थान को राजमन्दिर के नाम से जाना जाता है।

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