मुहूर्त देखकर पेड़ का पूजन किया जाता है ततपश्चात इसका निर्माण आरम्भ किया जाता है। निर्माण पूरा होने के पश्चात इसकी दिन रात जगाई करनी पड़ती है। रिवाज यह है कि जब कुरुड को उठा लिया जाता है तो इसे भूमि पर नहीं रख जा सकता जहां इसे स्थापित करना है वहीं रखा जाता है। कुरुड स्थापना एक जटिल प्रक्रिया है लेकिन जहां इतनी देव आस्था और देवता का आशीर्वाद हो तो वहां असम्भव कार्य भी सम्भव हो जाता है। वहीं शांत महायज्ञ इससे पूर्व सन 1992 में आयोजित किया गया था। इस दिन “नैरी रात पैशी” की जाती है यानी कि प्रकाश के दिव्य तेज से अंधेरे को दूर भगाया जाता है। ज्ञान का दीपक जलाकर अज्ञान को भगाया जाता है। इस दिन को ददौण का नाम भी दिया गया है ददौण के दिन मंदिर परिसर मे मशाल यात्रा निकाली जाती है और देवता जी का भोग बांटा जाता है। भोग के रूप में इस बार जलेबी के प्रसाद का वितरण किया गया। प्रसाद बनाने का कार्य तीन दिन पहले आरंभ हो गया था क्योंकि क्विटलो जलेबी तैयार करने मे काफी समय लग जाता है।
पूर्व देवा रूपसिंह चौहान ने कहा है कि इससे पूर्व देवता स्नान जो कि कांगड़ा के नगरकोट में होता है और शांद समारोह सन् 1992 में आयोजित की गई थी। वजीर संत राम मनसैक ने कहा है कि डोम देवता दिल्ली तक अपना आदिपत्य रखते हैं । देवता जी की कल्याणे 18 रियासतों एवं 22 ठकुराईंयों में फैली है।हिमाचल में लोगों की देवताओ पर आस्था देखते ही बनती है। आस्था एवं श्रद्धा को इंगित करने वाली हिमाचल की इस पावन धरा को इसलिए ही देवभूमि की संज्ञा दी गई है। क्षेत्र के प्रसिद्ध साहित्यकार एवं कलाकार व राष्ट्रपति सम्मान से सम्मानित विद्यानंद सरैक के अनुसार देवता महाराज कांगड़ा स्थित मंदिर में अपना स्नान करने के पश्चात आजकल मंदिर परिसर के बाहर तंबू के नीचे रहते हैं। देव कार्य मे जुड़े सभी सभी लोग भी वही रहते हैं। यह जानकारी देते हुए रमेश सरैक बताया इस मंदिर के निर्माण में लोगों ने हर घर से धन इकट्ठा कर इस भव्य मंदिर का निर्माण में अपना भरपूर योगदान दिया है और विद्यानंद सरैक के सहयोग से इस मंदिर के लिए भाषा संस्कृति विभाग से भी वजट का प्रवाधान कराया गया था ।