हिमाचल के इन जिलों में जन्माष्टमी के बाद मनाया जाता है डायनो का पर्व ‘डगैली’, जानें रोचक तथ्य   

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हिमाचल के इन जिलों में जन्माष्टमी के बाद मनाया जाता है डायनो का पर्व ‘डगैली’, जानें रोचक तथ्य

आवाज़ ए हिमाचल 

जीडी शर्मा, राजगढ़। हिमाचल प्रदेश को पूरी दुनिया में देव भूमि के नाम से जाना जाता है। प्रदेश में अनेको ऐसी परम्पराएं, रिति रिवाज, प्रथाएं व त्यौहार हैं, जो बड़ी आस्था के साथ मनाएं जाते हैं। इन्हीं में से डगैली पर्व भी एक है जो शायद हिमाचल प्रदेश के सिरमौर, शिमला, मंडी, सोलन, कुल्लू आदि के ग्रामीण क्षेत्रों को छोड़ कर शायद कहीं और नहीं मनाया जाता।

डगैली का अर्थ है डायनो का पर्व इसे यहां डर के कारण या आस्था के कारण क्यों मनाया जाता है इसका कोई स्पष्ट प्रमाण देखने को नहीं मिलता और अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग समय यह पर्व मनाया जाता है। यह परंपरा है या पर्व, इसके पीछे कोई भी पुख्ता प्रमाण नहीं मिलते फिर भी यह पर्व यहां से आज के आधुनिक समय में मनाया जाता है। कुछ क्षेत्रों में यह डरावना पर्व श्री कृष्ण जन्माष्टमी की रात्रि को तथा कुछ क्षेत्रों में इसके ठीक पांच दिनों के बाद भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी व चौदस के दिन मनाया जाता है।

ऐसा माना जाता है कि इन दोनों रात्रियों को डायने, भूत, पिशाच खुला आवागमन तथा नृत्य करते हैं। इस दृष्य को कोई आम आदमी नहीं देख सकता। इसे केवल तांत्रिक तथा देवताओं के गुर ही देख सकते हैं। इन दिनों डायनो व भूत प्रेतों को खुली छूट होती है वह किसी भी आदमी व पशु आदि को अपना शिकार बना सकती हैं। इसके लिए लोग पहले ही यहां अपने बचने का पूरा प्रंबध यानि सुरक्षा चक्र बनाकर रख लेते हैं। इन सुरक्षा प्रबंधों की तैयारियां यहां पर रक्षाबंधन वाले दिन से आरभं हो जाती हैं। रंक्षा बंधन वाले दिन जो रक्षा सूत्रों पुरोहितों द्वारा अपने यजमानों को बाधां जाता है उसे डगैली पर्व के बाद ही खोला जाता है। इसके साथ-साथ उसी दिन पुरोहित द्वारा अभिमंत्रित करके दिए गए चावलों या सरसों  के दानों के साथ-साथ अपने कुल देवता के गुर द्वारा दिए गए रक्षा के चावल के दानों को डगैली पर्व से ठीक पहले अपने घरों पशुशालाओ व खेतों में छिड़क दिया जाता है, ताकि उनको घरों में परिवार के सभी सदस्यों, पशुशाला में पशुओं व खेतों में फसलों को डायने किसी प्रकार का नुकसान न पंहुचा सकें इसके अलावा भेखल व तिरमल की झाड़ी की टहनियों को दरवाजे व खिड़कियों में लगाया जाता है।

पहली डगैली की रात्रि को सोने से पहले दरवाजे पर खीरा यानि काकड़ी की बलि व दूसरी डगैली की रात्रि को अरबी के पत्तों से बने व्यंजन पतीड जिसे स्थानीय भाषा मे धिधड़े भी कहा जाता है की बलि दी जाती है, ताकि बुरी शक्तियां उनके घरों में प्रवेश न कर सकें। आज के आधुनिक व वैज्ञानिक युग में ऐसे त्योहारों व प्रथाओं पर विश्वास करना कठिन है, मगर यहां यह पर्व आस्था या फिर डर किस कारण से मनाया जाता है इसके पीछे कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता, फिर भी इस पर्व को सैंकड़ों सालों से मनाया जाता है।

 

चुडेश्वर कला मंच जागल ने किया है डगैली पर्व पर शोध 

इस पर्व पर चुडेश्वर कला मंच जागल द्वारा शौध कार्य किया गया है। चुडेश्वर कला मंच के संस्थापक जोगेद्र हाब्बी ने ‘आवाज़ ए हिमाचल’ से विषेश भेंट में कहा कि उनकी मंच के पदम श्री विद्या नंद सरैक व गोपाल हाब्बी ने शौध कार्य किया है और सोलन शिमला व सिरमौर के ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों से वार्तालाप किया तथा उसी आधार पर डगैली गीत व डगैली परिधान तैयार किए एवं इसका मंचन भी किया।

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