लोगों ने पाश्चात्य संस्कृति के इस दौर में संजो कर रखी है कबायली परम्परा, बूढ़ी दिवाली प्राचीन संस्कृति के संरक्षण का जीवंत उदाहरण
आवाज़ ए हिमाचल
जीडी शर्मा, राजगढ़। समूचे देश में दिवाली कार्तिक माह की अमावस्या को मनाई जाती है, लेकिन हिमाचल प्रदेश राजगढ़, नौहराधार, हरिपूरधार, रैणुका, शिलाई आदि क्षेत्र में दिपावली का पर्व ठीक एक महीने बाद मनाया जाता है। इस बार यह पर्व कल रात्रि से आरंभ हुआ और लगभग 7 दिनो तक चलेगा। इस अनोखे त्योहार को बूढ़ी दिवाली या मशराली कहा जाता है। यहां इस क्षेत्र में यह पर्व ठीक एक महीने बाद क्यूं मनाया जाता है, इसके बारे में कोई ठोस प्रमाण तो मौजूद नहीं है। मगर फिर भी अलग-अलग क्षेत्रों में इसे अलग-अलग अंदाज से मनाया जाता है।
इस संबंध में दो मान्यताएं विशेष तौर पर प्रचलित हैं। कुछ लोगों का मानना है कि दिवाली के समय में महाभारत कालीन युद्ध चल रहा था। इस युद्ध की समाप्ति के बाद कबायली क्षेत्र में फिर से दिवाली मनाई गई, जबकि एक मान्यता यह भी है कि दैत्य राज बली के द्वारा एक दिन के लिए धरती पर आगमन की खुशी से इस क्षेत्र में बूढ़ी दिवाली की परंपरा शुरू हुई। ऐसा भी माना जाता है कि जिस समय इस दिवाली का पर्व आता है उस समय इस क्षेत्र में फसलों और पशू चारा के एकत्रीकरण व भंडारण का कार्य जोरों पर चला होता है। इसके साथ-साथ यहां सर्दियों मे भारी हिमपात होने के कारण लोग ईंधन की लकड़ी का भंडारण भी इन्ही दिनों में करते हैं, इसलिए दिवाली के समय लोग काफी व्यस्त रहते हैं। शायद इसलिए लोगों ने यहां ठीक एक महीने बाद अगली अमावस्या को दिवाली मनाने का निर्णय लिया होगा। इनमें से किसी भी बात का कोई ठोस साक्ष्य या प्रमाण नहीं मिलता है। यहां बूढ़ी दिवाली का शुभारंम ग्राम देवता की पांरपरिक पूजा के साथ होता है और मशाल यात्रा के साथ होता है। ऐसा माना जाता है बूढ़ी दिवाली का पर्व पर बुरी आत्माओं को गांवों से बाहर खदेड़ने के लिए मशाल यात्रा निकाली जाती है। बूढ़ी दिवाली का पर्व सात दिनों तक चलता है।
मान्यता है कि गिरिपार क्षेत्र में सतयुग से लेकर बूढ़ी दिवाली की रिवायत चली आ रही है। बूढ़ी दिवाली पर्व की खास बात यह है कि देश भर में अनोखा त्योहार आज भी प्राचीन तरीके से ही मनाया जाता है और पाश्चात्य संस्कृति के इस दौर में भी क्षेत्र के लोगों ने इस कबायली परम्परा को संजो कर रखा है। बूढ़ी दिवाली देश भर में प्राचीन संस्कृति के संरक्षण का जीवंत उदाहरण है। इस पर्व की शुरुआत पोष माह की अमावस्या की रात को गांव के सांझे प्रांगण में अलाव जलाकर और अगली सुबह मशाल यात्रा निकालकर होती है। कुछ स्थानो पर मशाल सुबह के समय तो कुछ स्थानो पर संध्याकाल में निकाली जाती है। मशाल यात्रा के दौरान प्राचीन वाद्य यंत्रों की धुनों में नाचते गाते मदमस्त लोग पहाड़ी भाषा में देव स्तुतियां करते हैं। साथ ही बुरी आत्माओं को भला-बुरा कह कर गांव से बाहर खदेड़ते हैं और बुराइयों को खदेड़ने की खुशी में बलिराज जलाते हैं। यहां अलग अलग क्षेत्रों में अलग-अलग दिनों यह पर्व मनाया जाता है। संध्याकाल में मशाला यात्रा अलाव जिसे स्थानीय भाषा मे घैना कहते हैं व ग्रामीण देवता की पांरपरिक पूजा यहां रात्रि को सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं, जिसमें करियाला का आयोजन होता है। करियाला में रामायण एवं महाभारत का स्थानीय भाषा में मंचन होता है। इसके साथ-साथ सिरमौरी नाटी, रासा, बझेडू नृ्त्य सहित अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम पेश होते हैं। इसके साथ-साथ इन सात दिनो तक घरों में यहां के पांरपरिक व्यजन, जिसमें मूडा, शाकुली, अस्कली, लुश्के, सिडकू आदि बनाए जाते हैं।