आवाज़ ए हिमाचल
रमेश चन्द्र ‘मस्ताना’
शाहपुर, 3 अगस्त। 2 अगस्त 1998 की वह काली-स्याह मध्य रात्रि और 3 अगस्त की अल सुबह तड़के की भोर कालाबन और सतरुंडी में डेरा डाले उन ठेकेदारी मजदूरों, कर्मचारियों तथा राहगीरों के लिए काल रात्रि बन गई थी, जो कश्मीरी आतंकवादी संगठन हिज्बुल मुजाहिदीन और लश्कर-ए-तोइबा के आतताइयों द्वारा निर्ममता पूर्वक मौत के घाट उतार दिए गए थे। उस समय क्योंकि बैरागढ़-सतरुंडी-साचपास-किलाड़ सड़क का निर्माण कार्य जोरों पर चला हुआ था और ठेकेदारों की लेबर कालाबन में डेरे लगाकर कार्य कर रही थी।
दो अगस्त की उस काल रात्रि में आतंकियों ने पहले सभी मजदूरों को बन्दूकों की नोक पर बन्धक बनाकर, उनके सारे सामान को लूटा और फिर दनादन गोलियों से भूनकर मौत के घाट उतार दिया। इस सामुहिक नरसंहार में छब्बीस व्यक्ति काल का ग्रास बन गए, जबकि आठ व्यक्ति अन्धकार का लाभ उठाकर किसी न किसी तरीके से भाग्य के धनी बन, अपनी जान बचाने में भले ही सफल हो गए परन्तु बहुत बुरे तरीके से वह भी जख्मी हो गए थे। यह आतंकी इतने पर ही नहीं रुके और आगे जाकर सतरुंडी में जो राहगीर पांगी-घाटी में जाने के लिए पड़ाव डाले हुए थे, उन पर भी उन्होंने हल्ला बोल दिया। यहां पर भी नौ व्यक्ति, जिनमें पांगी-किलाड़ में नौकरी करने वालों में एक पुलिस काॅन्सटेबल, एक ग्राम सेवक और एक उपमंडल अधिकारी (नागरिक) के कार्यालय में सेवारत कर्मचारी था, उन्हें गोलियों से भूनकर मौत के घाट उतार दिया था जबकि छ: व्यक्तियों को वह लूट के सामान को ले जाने के लिए भारवाहक के रूप में जबरदस्ती बन्धक बनाकर ले गए। इनमें एक व्यक्ति वह चौकीदार भी था जो सतरुंडी में एक विशालकाय चट्टान के नीचे बने कुड्ड नुमा रेस्ट हाउस में कार्यरत था। कहा यह भी जाता है कि सतरुंडी से आगे बातचीत के दौरान उन्होंने एक व्यक्ति को इसलिए रिहा कर दिया था कि वह मुस्लिम समुदाय से संबंधित था। हिन्दू समुदाय से संबंध रखने वाले यह पांच बन्धक, जो आतंकियों के भारवाहक के रूप में गए, वह आज तक लापता हैं और उनके जीवित अथवा मृत होने का कोई भी सबूत प्राप्त नहीं हो पाया है।
उस समय क्योंकि पांगी-घाटी में जाने के लिए केवल और केवल पैदल ही चलकर पहुंचना एकमात्र विकल्प था और राहगीर रात को सतरुंडी में रुकते थे तथा प्रातः लगभग चार बजे से पहले-पहले सतरुंडी से चलकर छ: बजे से पहले-पहले साच पास को पार करने की कोशिश करते थे क्योंकि इसी दशा में वह शाम तक पांगी-किलाड़ तक पहुंच पाते थे अन्यथा यदि जल्दी न चलें तो उन्हें एक रात्रि और मरथालू के सामने घुग्घू घराट के पास बिन्द्राबन में लोक निर्माण विभाग के विश्राम गृह में काटनी पड़ती थी और फिर अगले दिन पून्टो से पार करेल होते हुए पैदल रास्ते से ही किलाड़ पहुंचते थे। उस दिन भी कुछ राहगीर तड़के चार बजे से पहले वहां से निकल लिए थे, वह तो भाग्य से बच गए थे परन्तु जो निकलने की तैयारी में थे और आतंकियों के साये में आ गए, वह या तो प्राणों से हाथ धो बैठे अथवा बन्धक बन लापता हो गए।
इस नृशंस और सामुहिक नरसंहार का पता पांगी-घाटी और मुख्यालय किलाड़ में देर शाम को ही लग पाया था। एक औरत जोकि पांगी-घाटी के प्रे-ग्रां के रहने वाली थी और किसी तरह लाशों के ढेर के नीचे दबने के कारण बच गई थी, वह कुछ देर बाद यह सुनिश्चित करके कि अब आतंकी यहां से जा चुके हैं, परेशानी की हालत में भी कुछ हिम्मत करके बदहवासी की स्थिति में बड़ी मुश्किल से घर पहुंची थी और तब सभी लोगों के साथ-साथ मुख्यालय किलाड़ तक यह खबर पहुंची थी।
नरसंहार के उपरांत जो जानकारियां सामने आईं अथवा खूफिया तन्त्र से जो बातें पता चली, उनके अनुसार यह आतंकी लूटपाट और दहशत फैलाने के उद्देश्य से जम्मू संभाग के बीहड़ घने जंगलों से होते हुए मुज्जफड़ नाला से आए थे और फिर कालाबन व सतरुंडी में वारदात को अंजाम देने के उपरांत शायद इश्तहारी व बिन्द्रावणी और फिर चूटो गांव होते हुए डोडा क्षेत्र को निकल गए थे। दूसरे दिन जब शिमला से डीजीपी टी आर महाजन एवं कमाडैंट एम एस गिल के साथ किलाड़ मुख्यालय के उस समय के तहसीलदार कम उपमंडल अधिकारी (नागरिक) प्रभात शर्मा जब हैलीकाॅप्टर के माध्यम से रैकी करने के लिए निकले थे तो हिमाचल के पहाड़ों के मध्य उन आतंकियों का कोई सुराग नहीं लगा था जबकि जम्मू की सीमा पर बिन्द्रावणी की चरागाहों में गुज्जरों के कोठे अवश्य दिखाई दिए थे और संभावना यह लगी थी कि वह वहां अवश्य रुके होंगे अथवा वहां से उन्हें जानकारियां व सहायती सांठगांठ अवश्य ही मिलती रही होगी।
इस नरसंहार के उपरांत प्रदेश की सीमाओं पर सुरक्षा व्यवस्था मजबूत कर दी गई थी और सतरुंडी में भी एक चैक पोस्ट स्थापित कर दी गई थी। इसके अतिरिक्त सतरुंडी में ही एक हैलीपैड का निर्माण भी कर दिया गया था। वर्तमान में विगत वर्षों से सतरुंडी की इस चैक पोस्ट को सतरुंडी से हटाकर बहुत पीछे बैरागढ़ में स्थानांतरित कर दिया गया है, जहां पर सड़क मार्ग से आने-जाने वालों की चैकिंग व वीडियो ग्राफी तो अवश्य होती है, परन्तु आगे साच पास के पीछे का सारा बीहड़ व दुर्गम क्षेत्र किसी भी प्रकार की निगरानी की आंख में नहीं है। इस नृशंस एवं सामुहिक नरसंहार में शहीद होने वाले समस्त शहीदों की स्मृति में कालाबन हत्याकांड श्रद्धांजलि सभा, चुराह के सौजन्य से एक शहीद स्मारक का निर्माण कालाबन के शहीदी स्थल पर 14 सितम्बर 2014 को किया गया है, जिसमें एक स्मारक-स्तंभ पर समस्त शहीदों के नाम अंकित किए गए हैं।