आवाज़ ए हिमाचल
जीडी शर्मा, राजगढ़। देवभूमि हिमाचल के पांरपरिक पर्वों और रीति रिवाजों के अनूठे उदाहरण देखने को मिलते हैं। प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों मे देव पंरपराओं पर आधारित देवठन पर्व मनाया जाता है। एकादशी तिथी को देवठन पर्व मनाया जाता है। जिला सिरमौर के राजगढ़ व आसपास के क्षेत्रों में देवठन पर्व मनाने के लिए सभी तैयारियां पूरी कर ली गईं हैं। पांच दिनों तक चलने वाला देवठन पर्व कल से शुरू होगा और कार्तिक पूर्णिमा को देवठन पर्व का समापन होगा।
आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी, जिसे हरिशयनी या देवशयनी एकादशी कहते हैं, के दिन ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, अग्नि, वरुण, कुबेर, सूर्य आदि से पूजित श्रीहरि क्षीरसागर में चार माह के लिए शयन करने चले जाते हैं। इन चार माह के दौरान सनातन धर्म के अनुयायी विवाह, नव भवन निर्माण आदि शुभ कार्य नहीं करते। श्री विष्णु के शयन की चार माह की अवधि समाप्त होती है कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी को। इस दिन श्रीहरि जाग जाते हैं। इस एकादशी को देव उठावनी और देव प्रबोधिनी एकादशी कहा जाता है। कार्तिक शुक्ल की एकादशी को भगवान विष्णु योगनिद्रा से जागते हैं, जिसके बाद चार माह से रुके हुए सभी मांगलिक कार्य शुरू हो जाते हैं. भगवान विष्णु आषाढ़ शुक्ल एकादशी को चार माह के लिए योगनिद्रा में चले जाते हैं. देव जागरण या उत्थान होने के कारण इसे देवोत्थान एकादशी कहते हैं। इस दिन उपवास रखने का विशेष महत्व है. कहते हैं इससे मोक्ष की प्राप्ति होती है. इस साल देवोत्थान एकादशी का पर्व शुक्रवार 4 नवबर को है।
देवोत्थान एकादशी पर इन बातों का ख्याल रखें ध्यान
देवोत्थान एकादशी वाले दिन निर्जल या केवल जलीय पदार्थों पर उपवास रखने से लाभ मिलता है। अगर कोई बीमार शख्स, वृद्ध, बालक या व्यस्त व्यक्ति हैं तो केवल एक वेला का उपवास रखना चाहिए और फलाहार करना चाहिए। अगर यह भी संभव न हो तो इस दिन चावल और नमक नहीं खाना चाहिए। भगवान विष्णु या अपने इष्ट-देव की उपासना करें। इस दिन तामसिक आहार (प्याज, लहसुन, मांस, मदिरा, बासी भोजन) बिलकुल न खाएं। इस दिन “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” मंत्र का जाप करना चाहिए।
देवोत्थान एकादशी की पूजा विधि
गन्ने का मंडप बनाने के बाद बीच में चौक बना लें। इसके बाद चौक के मध्य में चाहें तो भगवान विष्णु का चित्र या मूर्ति रख सकते हैं। चौक के साथ ही भगवान के चरण चिह्न बनाए जाते हैं, जिसको कि ढ़क दिया जाता है। इसके बाद भगवान को गन्ना, सिंघाडा और फल-मिठाई समर्पित किए जाते हैं। घी का एक दीपक जलाया जाता है जो कि रातभर जलता रहता है। भोर में भगवान के चरणों की विधिवत पूजा की जाती है। फिर चरणों को स्पर्श करके उनको जगाया जाता है। इस समय शंख-घंटा-और कीर्तन की आवाज की जाती है। इसके बाद व्रत-उपवास की कथा सुनी जाती है, जिसके बाद सभी मंगल कार्य विधिवत शुरु किए जा सकते हैं। यूं तो श्रीहरि कभी भी सोते नहीं, लेकिन ‘यथा देहे तथा देवे’ मानने वाले उपासकों को विधि-विधान से उन्हें जगाना चाहिए। श्री हरि को जगाते समय- ‘उत्तिष्ठोत्तिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पते। त्वयि सुप्ते जगन्नाथ जगत् सुप्तं भवेदिदम॥ उत्थिते चेष्टते सर्वमुत्तिष्ठोत्तिष्ठ माधव। गता मेघा वियच्चैव निर्मलं निर्मलादिश:॥ शारदानि च पुष्पाणि गृहाण मम केशव।’ आदि मंत्रों का उच्चारण करना चाहिए।
घैणा पूजन के साथ आरंभ होगा पर्व
यहां देवठन पर्व के लिए हर गांव में कुल देवता या ग्राम देवता के मंदिर सुबह से ही सजने शुरू हो जाते हैं। पर्व को लेकर देव गांव के मुख्य लोग और देव पुजारी व्रत रखते हैं। सभी देव मूर्तियों और मंदिरों को साफ करके सजाया जाता है। संध्या काल में मंदिर परिसर में आग का अलाव किया जाता है। इसे स्थानीय भाषा मे ‘घैना’ कहा जाता है। उसके बाद मंदिर मे देव पूजा के बाद घैना पूजन किया जाता है।
रात भर होता है घैना जागना
इसके बाद रात भर जागरण का आयोजन किया जाता है। इसे स्थानीय भाषा मे ‘घैना जागना’ कहा जाता है. पूरी रात जागरण के बाद अगली सुबह देव पूजा होती है। देव पूजा के समय देवता का गुरू देव वाणी के माध्यम से अपने क्षेत्र के लोगों आगामी समय के लिए क्या करना है, इसका भी आदेश देता है कुछ स्थानों पर देवता का गुर रात भर से जल रहे आग के घैने पर नाचता है और इसे स्थानीय भाषा मे घैना छापना कहते हैं। पूरे दिन देव दर्शन का कार्यक्रम चलता है. साथ ही देवता अपने भक्तों को आर्शिवाद देते हैं।
एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक चलेगा देवठन पर्व
रात को जागरण के समय मंनोरजन के लिए करियाला यानि लोक नाट्य का आयोजन होता है, जिसमें महाभारत, रामायण का स्थानीय भाषा में मंचन होता है और यहां रामायण व महाभारत को लोक गीतों में गाया जाता है। इसे स्थानीय भाषा में ‘नाटी’ कहा जाता है। यहां पूरे क्षेत्र में देवठन मनाने के लिए कोई एक तिथि निर्धारित नहीं है।
पांच दिनो तक घरों में बनेंगे पांरपरिक व्यजंन
यहां यह सिलसिला एकादशी तिथि से लेकर पूर्णिमा तक चलता है और हर गांव में अलग-अलग दिन देवठन मनाया जाता है। यानि पहाड़ी क्षेत्रों में देवठन का पर्व पांच दिनों तक चलता है। इन पांच दिनों तक घरों में पांरपरिक व्यजंन जैसे पटांडे, सिडकू, अस्कली, लुश्के पूड़े, आदि बनाए जाते हैं।