आवाज ए हिमाचल
23 फ़रवरी। पिछले दिनों उत्तराखंड के पहाड़ों पर ग्लेशियर का टूटना गंभीर संकट का संकेत है। इस प्राकृतिक आपदा का सीधा संबंध प्रकृति की छेड़छाड़ से जुड़ा है। प्रकृति के साथ ऐसा खिलवाड़ जिस पैमाने पर होता रहेगा, उसका तांडव धरती पर उसी स्तर पर दिखेगा। जिसके चलते तमाम जीव-जंतुओं के लिए यह न केवल हानिकारक सिद्ध होगा, बल्कि शासन और उसके सभी आयामों को चुनौती भी देगा। जीवन और जलवायु के संबंध को बनाए रखना शासन के लिए चुनौती है, पर इसे कायम रखना सुशासन का पर्याय है।
ग्लोबल वार्मिंग के चलते ऐसे प्राकृतिक घटनाओं की आशंका पहले भी जताई जा चुकी है, पर इसे लेकर चौकन्ना न रहने की गलती जब तक होती रहेगी, हादसे होते रहेंगे। ग्लोबल वाìमग को रोकने का फिलहाल बड़ा इलाज किसके पास है यह कह पाना मुश्किल है, मगर सावधान रहना हमारे बस की बात है। सुशासन एक समझ है, जो केवल आविष्कार या विकास पर बल नहीं देता, बल्कि संतुलन को भी उतना ही स्थान देता है। सुशासन का पर्यावरण और जलवायु से गहरा नाता है। प्राकृतिक संदर्भो में पारिस्थितिकी के सापेक्ष विकास और समृद्धि का ताना-बाना सुशासन है और यही लोक कल्याण के काम भी आता है। जब यही पर्यावरण के खिलाफ होता है तो तबाही के आलम के अलावा कुछ नहीं होता।आज के भूमंडलीकरण के दौर में प्राकृतिक आपदा की बढ़ती तीव्रता कहीं न कहीं मानव और पर्यावरण का संबंध विच्छेद होने के चलते हुआ है। उत्तराखंड में पिछले दो दशकों में सड़कों का निर्माण और विस्तार तेजी से बढ़ा है। इसके लिए भूवैज्ञानिक फॉल्ट लाइन, भूस्खलन के जोखिम को भी हद तक नजरअंदाज किया गया है। विस्फोटकों के इस्तेमाल, वनों की कटाई, भूस्खलन के जोखिम पर कुछ खास ध्यान न देना और जल निकासी संरचना का अभाव सहित कई सुरक्षा नियमों की अनदेखी भी आपदा को न्योता दे रही है। पर्यटन और ऊर्जा की दृष्टि से उत्तराखंड एक उपजाऊ प्रदेश है। दो सौ से ज्यादा विभिन्न आकार की पनबिजली परियोजनाएं उत्तराखंड में क्रियान्वयन के विभिन्न स्तरों पर हैं।
पृथ्वी 4.5 अरब वर्ष पुरानी है। जाहिर है यह कई रूप ले चुकी है और रूपांतरण की क्रिया अभी भी जारी है। मानव अपने निजी लाभों के लिए हस्तक्षेप बढ़ाकर प्रकृति को तेजी से बदलने के लिए मजबूर कर रहा है और हादसे इसके भी नतीजे हैं। जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटना और पृथ्वी को बचाना, साथ ही पर्यावरण के साथ अनुकूलन स्थापित करना इत्यादि गुण सुशासन में आते हैं। शासन को चाहिए कि विकास और समृद्धि की ऐसी नीतियां बनाए, जो पर्यावरणीय हादसे से परे हों। इस तरह हादसे को समाप्त तो नहीं, पर कम तो किया ही जा सकता है।