दलगांव भूंडा महायज्ञ:नौवीं बार बेड़ा सूरत राम ने रस्सी पर बैठकर पार की खाई

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आवाज ए हिमाचल 

04 जनवरी।हिमाचल प्रदेश के शिमला जिले के रोहड़ू के दलगांव में चालीस साल बाद बेड़ा सूरत राम ने सफेद कफन बांधकर पवित्र घास से बनी रस्सी पर बैठकर खाई को देवता बकरालू के आशीर्वाद से एक से दूसरे छोर तक सकुशल पार किया। जैसे-जैसे उनके रस्से पर डालने की प्रक्रिया पूरी हुई, वाद्य यंत्रों में बज रही पारंपरिक संगीत की धुनें शोक में परिवर्तित हो गईं । आयोजन स्थल देवता के जयकारों से गूंज उठा। शनिवार को इस महायज्ञ में हजारों लोगों के सामने बेड़ा आरोहण सकुशल संपन्न हो गया। प्रशासन की ओर से जैड़ी(रस्सी) की सुरक्षा को लेकर पुख्ता इंतजाम किए गए थे। इस मौके पर अरोहण स्थल के आसपास तिल धरने की जगह नहीं थी। बेड़ा आरोहण की रस्म शाम 5:42 बजे शुरू हुई। करीब तीन मिनट के भीतर सूरत राम सकुशल दूसरे छोर पर पहुंच गए।पहले शनिवार दोपहर बाद करीब डेढ़ बजे इस रस्म को निभाने की तैयारी थी। लेकिन रस्सी के टूटने के बाद दोबारा पूरी तैयारी करना पड़ी। पौराणिक देव परंपरा के अनुसार बेड़ा सूरत राम को देवता की पालकी पर बैठा कर आयोजन स्थल तक पहुंचाया गया। इससे पहले आरोहण के लिए पालकी से उतारकर जैसे ही उन्हें लकड़ी की काठी पर बिठाया गया तो वाद्य यंत्रों में शोक की धुने बजने लगीं। ऊपर वाले छोर पर सूरत राम और नीचे दूसरे छोर में उसका पूरा परिवार था। काफी देर तक पूजा-अर्चना हुई। ठीक शाम पौने छह बजे सूरत राम को सकुशल रस्से के सहारे नीचे उतारा गया। नीचे पहुंचते ही उसके माथे पर बंधे पंचरत्न को लेने के लिए श्रद्धालुओं में होड़ मच गई। लोगों ने नीचे पंहुचने पर बेड़ा को देवता की पालकी पर बिठाकर नाचते हुए मंदिर परिसर तक पहुंचाया।इस तरह हजारों लोगों की मौजूदगी में सूरत राम ने चंद पलों में कई सालों से तैयार की गई आस्था की खाई को सकुशल पार किया। हालांकि, प्रशासन की ओर से उसकी सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए गए थे।प्रशासन ने रस्सी के नीचे जाली लगाई थी। जैसे ही बेड़ा सही सलामत दूसरे छोर पर पहुंचा तो शोक की धुने पारंपरिक संगीत में परिवर्तित हो गई। रस्सी पर सकुशल उतरने के बाद सूरत राम को लोगों ने कंधे पर उठाकर देवता के मंदिर तक पहुंचाया। लोगों ने उसे भेंट के तौर पर नकदी भी दी। अनुष्ठान में रस्सी को बांधने के लिए बजरेट कोटी के ठाकुर व वहां तक लाने की भूमिका पहले से देवता महेश्वर के साथ पहुचे खूंदों ने निभाई। बेड़ा आरोहण के लिए रस्सी टूटने के बाद दूरी को कम किया गया। ढलान कम होने के कारण रस्सी झूकने से काठी पर बैठे सूरत राम बीच में फंस गए। उसके बाद दूसरी रस्सी का सहारा देकर उन्हें दूसरे छोर तक पंहुचाया गया। बेड़ा के दूसरे छोर पर पहुंचते ही अनुष्ठा के तीसरे दिन की मुख्य रस्म पुरी की गई है।

पहले बेड़ा की पत्नी करती थी विधवा का रूप धारण

बेड़ा आरोहण के समय कई सालों पूर्व में प्रथा रही कि उसकी पत्नी रस्से के दूसरे छोर पर सकुशल अपने पति के पहुंचने के लिए पूजा-अर्चना करती थी। परिवार के साथ दूसरे छोर पर बैठकर विधवा महिला का रूप धारण किए अपने पति के सकुशल पहुंचने की देवताओं से प्रार्थना करती थी। पहुंचने के बाद वह दोबारा सुगाहन का जोड़ा धारण करती थी। लेकिन अब इस परंपरा को समाप्त कर दिया गया है। देवता बकरालू के मोतमीन रधुनाथ झामटा का कहना है कि इस प्रकार की परंपरा को कई साल पहले बंद कर दिया गया है। हलांकि, दूसरे छोर पर देवता की ओर से बेड़ा को दिए जाने वाले सभी उपहार, कपड़े, बिस्तर आज भी रखे जाते हैं। उनका कहना है कि अब इस प्रकार से बेड़ा की पत्नी को विधवा के रूप में नहीं रखा जाता।

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